Tuesday, June 21, 2005

सवाल एक, जवाब कई...

आखों में दोनो जहां के ख्वाब हैं;
िफर क्यों आईना-ए-िदल वीरान है?
मुस्कुराहट के हसीं साये में गुम
िकस अन्जाने दर्द की पहचान है?

िवद्या ने कहा --
यह कैसी हालत में पा गये हैं खुद को
न हमसे रुखस्त होगी न हम बक्श दे सकते हैं

केदार ने फरमाया --
जब ख्वाबों के चराग बुझ गये तो ेक ही साथी बचा --
अगर वो वीरानगी है तो क्या हुआ, कम्बख्त वफादार तो ़़है!

िवद्या ने पलट मारी --
वहां अन्जाने की पहचान भी क्या....
जहां मुस्कुराहट भी एक दर्द का कहकशां है।

आकर्ष जी की िवशेष िटप्पणी --
आपकी किवता पढकर ये महसूस हुआ,
िक आपके बारे में हम िकतने अन्जान हैं !

हम उपर्युक्त सज्जनों के हार्िदक आभारी हैं।

3 Comments:

At 5:57 PM, Blogger palamoor-poragadu said...

चंदू महोदय, आपका बहुत बहुत धन्यवाद। इतना अनोखा उपहार ज्यादती बिलकुल नही कहलाएगी, बलके एक अवसर है सभी सज्जनों को अपनी राष्ट्र भाशा का उपयोग व महत्व जानने का।
आशा है...
जिन्दगी के मोड कितने ही संगीन हो...
मगर महफिल जमे तो बडा रंगीन हो...

 
At 3:15 AM, Blogger Gandaragolaka said...

हुजूर-ए-अाला ।

अर्ज़ िकयाहै-
अाफ्ताब-ए-शायरी ने अाज िदल के कुद्रत को इस तरह से िखला िदया,
िक शायाद खुदा ने शायर की कलम मे िसयाही नही,अाब-ए-हयात रहे ये िसला िदया ।

 
At 5:26 AM, Blogger Sketchy Self said...

केदार साहब, हमारे न्यौते को कुबूल फरमएं और इस ब्लाग के सदस्य बनकर िइसका गौरव बढाएं !

 

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