लम्हों के कतरे
लम्हों के कतरे निरंतर बहते
मुट्ठी में समाते, आँखों को भिगोते
जिन्दगी की रेत में ओझल
कभी हलकी, कभी बोझल
लडकपन की नंगी हँसी में
जवानी की रंगीं नदी में
बुढापे की ठंडी आहों में
मौत की अंधेरी राहों में
छलकते, झलकते, फलक से उतरते
चहकते, बहकते, महकते, दहकते
हवाओं में बिखरे, पलकों पे ठहरे
होठों पे चमके, बालों में उलझे
छूकर के गालों को, यूँ सोने वालों को
देते बुलावा - हमें व्यर्थ ना कर
साँसो के घोडों पे होकर सवार
लम्हों के कतरे, निरंतर बहते
चले हैं न जाने किस दूसरे जहाँ में --- !
4 Comments:
now what is this one!! Gulzar meets Javed Akhtar???
every alternate line intermittently switches between both styles.. mean..the flavour of the words used...
not to take away the credit from you ofcourse... lekin..why is that the frequency is so less...if u can write this way..u shld be writing more...
lol...thx aakarsh...there will be more, but it'll take a little while...
बहुत बढिया कविता है। पढ़कर अच्छा लगा।
छूकर के गालों को, यूँ सोने वालों को
देते बुलावा - हमें व्यर्थ ना कर
ताज़गी से भरी है आपकी कविता...कैसे समेटे इन लम्हों को....छलकते, झलकते, फलक से उतरते
चहकते, बहकते, महकते, दहकते.....चंचल बड़े हैं....पकड़ने से पहले हाथ से फिसलते...
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