Thursday, November 03, 2005

लम्हों के कतरे

लम्हों के कतरे निरंतर बहते
मुट्ठी में समाते, आँखों को भिगोते
जिन्दगी की रेत में ओझल
कभी हलकी, कभी बोझल
लडकपन की नंगी हँसी में
जवानी की रंगीं नदी में
बुढापे की ठंडी आहों में
मौत की अंधेरी राहों में
छलकते, झलकते, फलक से उतरते
चहकते, बहकते, महकते, दहकते
हवाओं में बिखरे, पलकों पे ठहरे
होठों पे चमके, बालों में उलझे
छूकर के गालों को, यूँ सोने वालों को
देते बुलावा - हमें व्यर्थ ना कर
साँसो के घोडों पे होकर सवार
लम्हों के कतरे, निरंतर बहते
चले हैं न जाने किस दूसरे जहाँ में --- !