Monday, June 27, 2005

प्यार की लौ

िरशतों के ये भूखे साये साथ न मेरा छोडेंगे ।
जबतक मैं हूँ , जबतक लौ है, साये तो रहेंगे ही !
लेकिन जब मैं खुद जलूँगा बनके प्यार का रौशन सूरज,
तब मैं रहूँगा न लौ रहेगी , और न ये साये रहेंगे
बस, हर तरफ सागर सी िवस्तृत प्यार की एक सी धारा होगी।

रहीम का एक दोहा

रिहमन धागा प्रेम का,मत तोडो झटकाय
टूटे तो न जुडे, जुडे तो गॉट पड जाए

Saturday, June 25, 2005

खयालों कि रेत

बेखयाल दिन गुज़ारकर
जब रात कि गलियो मे कदम रखा
तो देखा कि मन कि आंगन मै
रेत पडी थी खयालो कि।
सोचा था उस को जमा करु और
ऎक रेत कि घडि बनाऊ
कि व‍‍‍‍‍क॒त को खयालो कि चलन से हि मेहसूस करू
लेकिन देखो तो,
ये कैसी आंधि हे जो इस दफा आकर
एक पल मे रेत को उडा लेगयी।

रोते रोते वो रेत रात को अलविदा केहकर चलीगयी
मन कि अंधेरे कम॒रो मे एक सऩनाटा उत्ता
ऒर रात भी दिन कि तरह बेखयाल गुज़रा ।

दुिनया का खेल (...जारी है)

िदल की पूरी भडास िनकाल तो लें,क्या पता िफर कब मौका िमले--

दुिनया का खेल (...जारी है)

वो भी एक िदन था,ईद से कुछ कम नही
अौर अाज भी एक िदन है,िसर्फ मातम का ही
तौहीन िकये जाने पर जो हमदर्दी नसीब होती
तारीफ करने पर वो भी जाती रही

हा ये सच है,िक हमारे दम पे दुिनया चलती नही
और ये भी,िक हमारे िबना भी सब कुछ है सही
पर एक बात पे ज़माने पे तरस खाता हू
हमारे िबना अक्लमंदों के माइने ही नही

हम इस हाल को भी अाराम से झेल लेते
हमारे बदिकस्मती पर यू न रो लेते
गर हमे इस बात का डर ना होता िक
क्या पता हम कल क्या कहलाए जाए

Kedar.

Friday, June 24, 2005

अौरत अौर कािमयाबी

अौरत अौर कािमयाबी

हर कािमयाब अादमी के पीछे एक अौरत होती है
क्योिक अौरत हमेशा कािमयाब अादमी के पीछे ही भागती है

बैगलूर के रेिडयो पर हर िदन एक म‌जा़िकया शर पेश करते है; ये उन मे से एक है

दुिनया का खेल

दुिनया का खेल

़ग़ािलब तू अाज िज़न्दा नही,है बोहत खुशिकस्मत
वरना हम पे हस हस के जान देने की अाती नौबत
पहले हम बेवकूफ कहलाये गये,िफर पेशेवर शायर
लगता है ज़माने ने ठान ली है,हमे िनकम्मा बनाने की,हर हाल पर !

एक मज़ािकया शेर

ये मैने मेरे एक दोस्त से सुना है--

मत रो ग़ािलब---




ये मोटरबोट है !!!

(थोडी सोंच की ज़रूरत है!)

Thursday, June 23, 2005

डूबते का सहारा

डूबते का सहारा

हम जानते है हमारी हालत खास्ता है
हमे इल्म है िक हमारा मुशिकल रास्ता है

पर कोई िगला नही है उन खुशनसीबों से
िजन्को सजी सजाई िज़न्दगी िमली

और कोई बैर नही उन िकस्मत वालोॅ से
िजनके बाग-ए-अर्मान की हर कली िखली

क्योिक हम जानते है दुिनया मे जलने वाले कम नही
यही िदलासा है िक कोई हम पे भी हसीद* है कही !

हसीद = jealous (just looked it up in english-urdu dictionary... quite handy that is!!
http://biphost.spray.se/tracker/dict/ )

एक बचकने शायर के दीवान से...

अर्ज िकया है ...

चहरे के नूर से तेरे जो वािकफ हैं,
उन आँखों को अंधेरे भी नम नहीं करते -
इस िदल को सहारा है तेरी उलफत का
अब एहले-जमाने से हम नहीं डरते़ !

मायूिसयों की सुरमई घटाओं में
तकदीर का तारा जो डगमगाया था
तन्हाइयों की झूमती हवाओं में
तेरे प्यार का दीया ही जगमगाया था

जबसे पनाह पायी है तेरे िदल की
तूफान की परवाह हम नहीं करते
इस िदल को .......
......हम नहीं डरते़ !

यह किवता लगभग ८ साल पुरानी है -- उस जमाने की उपज िक जब हम अपनी आवारा सोच को लगाम नहीं देते थे...

Wednesday, June 22, 2005

अबला,या बला?

जा बक्श िदया खुदा अाज तुझे
िक तूने खुबसूरत अौरत ज़ात बनाई
िजस बला को तू न झेल सका,
हम पे थोप कर अपनी खुदाई जताई

िजस बेरहमी से तूने गम-ए-दुिनया रचाई
उसी हमदर्दी से अारामगार नींद भी बनाई
िजस गलती को अौरत कहके सजाई
उसे भुलाने के िलये शराब भी बनाई

Tuesday, June 21, 2005

सवाल एक, जवाब कई...

आखों में दोनो जहां के ख्वाब हैं;
िफर क्यों आईना-ए-िदल वीरान है?
मुस्कुराहट के हसीं साये में गुम
िकस अन्जाने दर्द की पहचान है?

िवद्या ने कहा --
यह कैसी हालत में पा गये हैं खुद को
न हमसे रुखस्त होगी न हम बक्श दे सकते हैं

केदार ने फरमाया --
जब ख्वाबों के चराग बुझ गये तो ेक ही साथी बचा --
अगर वो वीरानगी है तो क्या हुआ, कम्बख्त वफादार तो ़़है!

िवद्या ने पलट मारी --
वहां अन्जाने की पहचान भी क्या....
जहां मुस्कुराहट भी एक दर्द का कहकशां है।

आकर्ष जी की िवशेष िटप्पणी --
आपकी किवता पढकर ये महसूस हुआ,
िक आपके बारे में हम िकतने अन्जान हैं !

हम उपर्युक्त सज्जनों के हार्िदक आभारी हैं।

स्वागत है आपका इस ब्लाग पर

अगर हम कहें िक यह िसलिसला जारी रहे तो क्या यह ज्यादती होगी? कुछ कद्रदान िमले, कुछ कहकशां चले, कुछ तबस्सुम िखले , कुछ आसूं िगरे...यह दुआ मांगें तो नाजायज होगा? आइए महिफल में बैठ कर हम अपनी यादें तरो-ताजा करें, अनसुने लम्हों को बयां करने का तकाजा करें....

I'm using the online editor at http://www.kalusa.org/hindi/uninagari/ to write this stuff. It's fairly straight-forward, except for the fact that it's refresh rate is bad (on firefox, anways), and other structural problems such as no conjoining functionality without the \(halanth) operator, or having to precede the consonant with i for the short 'i' sound... िमली would have to be typed as 'imlI'. Also, common keys such as the arrow keys, shortcuts etc don't quite work the way we are used to....it's heavily mouse-oriented (but not so much as some other online editors out there). But otherwise it's presentable (i hope)! You guys are welcome to use other methods, such as those listed here. There's a whole world of Indibloggers out there!

तो एक बार िफर आपका स्वागत है .... साज उठाइए और शुरू हो जाइए!

आपका

चन्दु